दरिया मिले शजर मिले कोह-ए-गिरां मिले
बिछड़े मुसाफिरों का भी कोई निशाँ मिले
ये विस्ल भी फरेब-ए-नज़र के सिवा नहीं
साहिल के पार देख ज़मीं आसमाँ मिले
ऐसी जिगर-ख़राश कहाँ थीं कहानियाँ
रावी के रंज भी तो पस-ए-दास्ताँ मिले
जाने मुसाफिरों के मुक़द्दर में क्या रहा
किश्ती कहीं मिली तो कहीं बादबां मिले
जिस को जुनूं कि ज़र्द दुपहरों ने चुन लिया
शाम-ए-सुकूं मिली न उसे साइबां मिले
बारिश में भीगती रही तितली तमाम शब
आई सहर तो रंग धनक में अयां मिले
पुख्ता छतें भी अब के यकीं से तही मिलीं
पक्के घरों में खौफ के कच्चे मकाँ मिले
शब्बीर दिल का शहर तो हैरान कर गया
झरने कहीं मिले, कहीं आतिश-फशां मिले
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