दूर दूर तक कोई जब नज़र नहीं आता
आँख का परिंदा भी लौट कर नहीं आता
मौत भी किनारा है वक़्त के समंदर का
और ये किनारा क्यों उम्र भर नहीं आता
ख्वाहिशें कटहरे में चीखतीं ही रहती हैं
फैसला सुनाने को दम मगर नहीं आता
दूर भी नहीं होता मेरी दस्तरस से वो
बाज़ूओं में भी लेकिन टूट कर नहीं आता
अपने आप से मुझ को फ़ासले पे रहने दे
रौशनी की शिद्दत में कुछ नज़र नहीं आता
मैं कभी ज़फर उसको मानता नहीं सूरज
बादलों के ज़ीने से जो उतर नहीं आता
1 Comments:
bahut achhi ghazal hui hai...
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मैं कभी ज़फर उसको मानता नहीं सूरज
बादलों के ज़ीने से जो उतर नहीं आता
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Khubsoorar.. :)
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