A Poet of Elements

Wednesday, August 12, 2009

दूर दूर तक कोई जब नज़र नहीं आता
आँख का परिंदा भी लौट कर नहीं आता

मौत भी किनारा है वक़्त के समंदर का
और ये किनारा क्यों उम्र भर नहीं आता

ख्वाहिशें कटहरे में चीखतीं ही रहती हैं
फैसला सुनाने को दम मगर नहीं आता

दूर भी नहीं होता मेरी दस्तरस से वो
बाज़ूओं में भी लेकिन टूट कर नहीं आता

अपने आप से मुझ को फ़ासले पे रहने दे
रौशनी की शिद्दत में कुछ नज़र नहीं आता

मैं कभी ज़फर उसको मानता नहीं सूरज
बादलों के ज़ीने से जो उतर नहीं आता

1 Comments:

Blogger ..मस्तो... said...

bahut achhi ghazal hui hai...

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मैं कभी ज़फर उसको मानता नहीं सूरज
बादलों के ज़ीने से जो उतर नहीं आता
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Khubsoorar.. :)

10:16 PM  

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