A Poet of Elements

Wednesday, April 30, 2008

दूर जा के खुद को खुद से आज़माना चाहता हूँ
रोते रोते थक गया हूँ मुस्कुराना चाहता हूँ

दोस्तों कि दोस्ती, अपनों परायों का भरम
इन सभी रिश्तों को फिर से आज़माना चाहता हूँ

मैं किसी से कुछ कहूँ, ना कोई मुझ से कुछ कहे
पुर सुकूँ खामोश सी दुनिया बसाना चाहता हूँ

कब हुआ कैसे हुआ क्योंकर हुआ किसने किया
अब किसी काँधे पे सर रखकर बताना चाहता हूँ

ज़फर क्यों मिटते नहीं हैं ज़ेहन से उसके नुकूश
किस लिए किसके लिए खुद को मिटाना चाहता हूँ

दरिया मिले शजर मिले कोह-ए-गिरां मिले
बिछड़े मुसाफिरों का भी कोई निशाँ मिले

ये विस्ल भी फरेब-ए-नज़र के सिवा नहीं
साहिल के पार देख ज़मीं आसमाँ मिले

ऐसी जिगर-ख़राश कहाँ थीं कहानियाँ
रावी के रंज भी तो पस-ए-दास्ताँ मिले

जाने मुसाफिरों के मुक़द्दर में क्या रहा
किश्ती कहीं मिली तो कहीं बादबां मिले

जिस को जुनूं कि ज़र्द दुपहरों ने चुन लिया
शाम-ए-सुकूं मिली न उसे साइबां मिले

बारिश में भीगती रही तितली तमाम शब
आई सहर तो रंग धनक में अयां मिले

पुख्ता छतें भी अब के यकीं से तही मिलीं
पक्के घरों में खौफ के कच्चे मकाँ मिले

शब्बीर दिल का शहर तो हैरान कर गया
झरने कहीं मिले, कहीं आतिश-फशां मिले

Sunday, April 06, 2008

sharm-o-haya, mujh se
saamne aaya na karo

iishq to be-baak hai
aise chhupaya na karo

na chhiino muqaddar mera
yun zulf hataya na karo

dil bhar aata hai
aise dukhaya na karo

maut hi bakhsh do
par laut ke jaaya na karo